आयुर्वेद और हमारी प्रकृति

आयुर्वेद प्रकृति में उपस्थित उन द्रव्यों का समावास हैं जिससे मनुष्य समायोजित एवं क्रमबद्ध सदुपयोग से सुरक्षित स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता हैं | आइये जाने क्या हैं ये द्रव्य और कब करे इनका प्रयोग ?

जाने आयुर्वेद और उसकी महत्ता

आयुर्वेद एक प्राचीनतम उपचार हैं जो सदियो से चली आ रही हैं | इसका महत्व दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा हैं | इसी संदर्भ में हम आपको कुछ आयुर्वेदिक उपचार और उसकी महत्ता को बताने जा रहे हैं | आइये जाने क्या हैं ये ?

स्वावलंबन और नियमितता की परख हैं आयुर्वेद

आयुर्वेद स्वावलंबन एवं नियमितता की परख हैं | इसके गुणधर्म मनुष्य के शरीर को आन्तरिक और बाह्य दोनों ही रूप से लोकिक बनाता हैं | परन्तु इसके लिए नियमितता और स्वव्लाम्बिता अनिवार्य हैं | स्वावलंबी बने स्वस्थ्य रहे

स्वस्थ्य शरीर में सिर्फ आत्मा ही नहीं परमात्मा बसते हैं

अति सुन्दर बचन "मूरख के लिए धन और गुणी के लिए स्वास्थ्य" समान कोई संचय नहीं हैं | एक स्वस्थ शरीर ने एक स्वस्थ आत्मा का निवास होता हैं | आयुर्वेद अपनाये स्वस्थ्य रहे सुरक्षित रहे |

सरल हैं स्वास्थ्य सहेजना

नित्य क्रिया में उपयोग होने वाली वस्तुये किस प्रकार आपके लिए उपयोगी हैं, कब और कितनी मात्रा में इसका उपयोग करे ? ये आयुर्वेद आपको बताता हैं | अत: सहज और सरल हैं आयुर्वेद, और उतना ही उपयोगी हैं |

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Saturday, 8 August 2015

रेचक वटी – आम संचय को दूर करे


हर्रे का कपडे से छाना हुआ चूर्ण ५ तोला, शुद्ध जमालघोटा १ तोला दोनों को सेहुंड (थूहर ) के दूध में घोटकर ४-४ रत्ती की गोलिया बना, छाया में सुखाकर रख ले |

मात्रा और अनुपान- १-१ गोली रात को सोते समय गर्म जल या दूध से दे |

गुण और उपयोग – इस वटी के सेवन से सुखपूर्वक १-२ दस्त साफ़ हो जाते हैं | कदाचित यदि रेचक वटी हज़म भी हो जाये तो यह किसी प्रकार का नुकसान नहीं करती | विशेषकर आम संचय को यह बहुत शीघ्र नष्ट करती हैं | मन्दाग्नि के कारण आमाशय की शिथिलिता से पेट‬ में विशेष आम-संचय हो जाता हैं | जिससे मल्ल वध्द हो जाता, दस्त‬ खुलकर नहीं होता, पेट या शरीर में आलस्य बना रहता हैं | एसी अवस्था में आमदोष दूर करने के लिए इस वटी का उपयोग करना चाहिए |

गिलोय सत्व - जीर्ण ज्वर, एवं मन्द-२ ज्वर से तुरंत दिलाये राहत



अंगूठे जितनी मोती ताज़ी गिलोय लेकर, उसको जल से धोकर, छोटे-२ टुकड़े कर लकड़ी की ओखली में डालकर खूब कूट कर,बर्तन में चौगुने जल में डाल, हाथो से खूब मल, दूसरे कलइदार बर्तन में स्वच्छ कपडे से सब जल छान ले और रात भर बर्तन को ढांक के रहने दे | सबेरे ऊपर का सब जल धीरे धीरे एक बर्तन में निथार ले | और निचे सत्व को बर्तन में रखा रहने दे | तत्पश्चात बर्तन पे पतला कपडा बाँधकर खुले स्थान में रखकर सत्व को सुखाकर रख ले | ऊपर से निथारे हुए जल को आग पर पका कर ठोस होने पे संशमनी वटी बनाई जा सकती है |


मात्रा – ४ रती से १ माशा तक संमभाग सितोप्लादी चूर्ण में मिलाकर या २ रत्ती प्रवालपिष्टी या चंद्रकला रस ३ रती में मिलाकर मधु अथवा अन्य उचित अनुपान के साथ दे |

गुण- जीर्ण ज्वर‬, मन्द-२ ज्वर बने रहना, हाथ और पैरो के तलुओ में गर्मी बनी रहना, पसीना अधिक निकलना, रक्त-पित्त, पांडू,कामला,अम्लपित्त, खूनीबाबाशीर, श्वेत तथा रक्त प्रदर, पित्तज अन्य विकार,प्यास की अधिकता आदि विकारों में उत्तम गुणकारी है |

‎त्रिफला‬ चूर्ण कब और कैसे करे प्रयोग


त्रिफला मानव शरीर के कायाकल्प को परिवर्तित करती हैं इसके सेवन से शरीर का ओज बना रहता हैं | और नेत्र बिकार का उत्तम समाधान हैं | एक प्रकार का अच्छा पाचक माना जाता हैं | इसको बनाने की विधि बहुत ही आसान हैं |

सेवन विधि - सुबह हाथ मुंह धोने व कुल्ला आदि करने के बाद खाली पेट ताजे पानी के साथ इसका सेवन करें तथा सेवन के बाद एक घंटे तक पानी के अलावा कुछ ना लें |

इसके प्रयोग की बिधि में सावधानी बरतनी पड़ती हैं | विभिन्न ऋतुओं के अनुसार इसके साथ गुड़, सैंधा नमक आदि विभिन्न वस्तुएं मिलाकर ले | हमारे यहाँ वर्ष भर में छ: ऋतुएँ होती है और प्रत्येक ऋतू में दो दो मास |

१- ग्रीष्म ऋतू - १४ मई से १३ जुलाई तक त्रिफला को गुड़ १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |
२- वर्षा ऋतू - १४ जुलाई से १३ सितम्बर तक इस त्रिदोषनाशक चूर्ण के साथ सैंधा नमक १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |
३- शरद ऋतू - १४ सितम्बर से १३ नवम्बर तक त्रिफला के साथ देशी खांड १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |
४- हेमंत ऋतू - १४ नवम्बर से १३ जनवरी के बीच त्रिफला के साथ सौंठ का चूर्ण १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |
५- शिशिर ऋतू - १४ जनवरी से १३ मार्च के बीच पीपल छोटी का चूर्ण १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |
६- बसंत ऋतू - १४ मार्च से १३ मई के दौरान इस के साथ शहद मिलाकर सेवन करें | शहद उतना मिलाएं जितना मिलाने से अवलेह बन जाये |

इस तरह इसका सेवन करने से एक वर्ष के भीतर शरीर की सुस्ती दूर होगी , दो वर्ष सेवन से सभी रोगों का नाश होगा , तीसरे वर्ष तक सेवन से नेत्रों की ज्योति बढ़ेगी , चार वर्ष तक सेवन से चेहरे का सोंदर्य निखरेगा , पांच वर्ष तक सेवन के बाद बुद्धि का अभूतपूर्व विकास होगा ,छ: वर्ष सेवन के बाद बल बढेगा , सातवें वर्ष में सफ़ेद बाल काले होने शुरू हो जायेंगे और आठ वर्ष सेवन के बाद शरीर युवाशक्ति सा परिपूर्ण लगेगा |

बनाने की बिधि- १ भाग हरड, २ भाग बहेड़ा, और ३ भाग आवला लेकर अच्छी तरह कूटकर कपडे से छानकर रख ले |

त्रिफला लेने का सही नियम -
*सुबह अगर हम त्रिफला लेते हैं तो उसको हम "पोषक " कहते हैं |क्योंकि सुबह त्रिफला लेने से त्रिफला शरीर को पोषण देता है जैसे शरीर में vitamine ,iron,calcium,micronutrients की कमी को पूरा करता है एक स्वस्थ व्यक्ति को सुबह त्रिफला खाना चाहिए |
*सुबह जो त्रिफला खाएं हमेशा गुड के साथ खाएं |
*रात में जब त्रिफला लेते हैं उसे "रेचक " कहते है क्योंकि रात में त्रिफला लेने से पेट की सफाई (कब्ज इत्यादि )का निवारण होता है |
*रात में त्रिफला हमेशा गर्म दूध के साथ लेना चाहिए |
  • नेत्र-प्रक्षलन : एक चम्मच त्रिफला चूर्ण रात को एक कटोरी पानी में भिगोकर रखें। सुबह कपड़े से छानकर उस पानी से आंखें धो लें। यह प्रयोग आंखों के लिए अत्यंत हितकर है। इससे आंखें स्वच्छ व दृष्टि सूक्ष्म होती है। आंखों की जलन, लालिमा आदि तकलीफें दूर होती हैं।
  •   कुल्ला करना : त्रिफला रात को पानी में भिगोकर रखें। सुबह मंजन करने के बाद यह पानी मुंह में भरकर रखें। थोड़ी देर बाद निकाल दें। इससे दांत व मसूड़े वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं। इससे अरुचि, मुख की दुर्गंध व मुंह‬ के छाले नष्ट होते हैं।
  •  त्रिफला के गुनगुने काढ़े में शहद मिलाकर पीने से ‪‎मोटापा‬ कम होता है। त्रिफला के काढ़े से घाव धोने से एलोपैथिक- एंटिसेप्टिक की आवश्यकता नहीं रहती। घाव जल्दी भर जाता है।
  •  गाय का घी व शहद के मिश्रण (घी अधिक व शहद कम) के साथ त्रिफला चूर्ण का सेवन आंखों के लिए वरदान स्वरूप है।
  • संयमित आहार-विहार के साथ इसका नियमित प्रयोग करने से मोतियाबिंद, कांचबिंदु-दृष्टिदोष आदि नेत्र रोग होने की संभावना नहीं होती।
  • मूत्र संबंधी सभी विकारों व मधुमेह में यह फायदेमंद है। रात को गुनगुने पानी के साथ त्रिफला लेने से कब्ज नहीं रहती है।
मात्रा : 2 से 4 ग्राम चूर्ण दोपहर को भोजन के बाद अथवा रात को गुनगुने पानी के साथ लें।

त्रिफला का सेवन रेडियोधर्मिता से भी बचाव करता है। प्रयोगों में देखा गया है कि त्रिफला की खुराकों से गामा किरणों के रेडिएशन के प्रभाव से होने वाली अस्वस्थता के लक्षण भी नहीं पाए जाते हैं। इसीलिए त्रिफला चूर्ण आयुर्वेद का अनमोल उपहार कहा जाता है।

सावधानी : दुर्बल‬, कृश व्यक्ति तथा गर्भवती स्त्री‬ को एवं नए बुखार में त्रिफला का सेवन नहीं करना चाहिए।

भूनिम्बादी चूर्ण – ‪आव‬ (Diarrhea) की समस्या से निजात दिलाये |


अतिसार या डायरिया (अग्रेज़ी:Diarrhea) में या तो बार-बार मल त्याग करना पड़ता है या मल बहुत पतले होते हैं या दोनों ही स्थितियां हो सकती हैं। पतले दस्त, जिनमें जल का भाग अधिक होता है, थोड़े-थोड़े समय के अंतर से आते रहते हैं। आज हम आप लोगो को अतिसार से निजात पाने की आयुर्वेदिक औषधी बताने जा रहे हैं |
चिरयता, इन्द्रजौ, सोंठ, काली मिर्च, पिपली, नागरमोथा, कुटकी, - प्रतेक १-१ तोला चित्रक की जड़ २ तोला और कुड़ा की छाल १६ तोला लेकर कूट-छानकर चूर्ण बनावे |

मात्रा और अनुपान- २ से ३ माशे तक सुबह-शाम, गुड के शरबत या छाछ के साथ दे |

गुण और उपयोग- इस चूर्ण के सेवन से ज्वारातिसार, ग्रहणी, कामला, पांडु, प्रमेह, अरुचि, आदि रोग नष्ट करने में सहायक हैं | आवं को नष्ट करने एवं रक्तातिसार में मिटाने के लिए यह बहुत उत्तम गुणकारी हैं | यह कठिन से कठिन आव का निस्तारण तुरंत करता हैं |

किसी भी प्रकार की आयुर्वेदिक औषधी आप हमारे केंद्र से मगा सकते हैं | मगाने के लिए सम्पर्क करे - 08896330952

‪श्वास संबंधी समस्या और उसका समाधान ! डॉक्टर की कलम से


प्रश्न- मेरी माताजी की आयु ६० वर्ष है। उनकी श्वास‬ फूलने लगती है। वे काफी हांफती रहती हैं। इस कारण ठीक से सो नहीं पातीं। जनवरी माह से वे "बेटनीसोल' गोली ले रही हैं। कृपया कोई आयुर्वेदिक चिकित्सा बताएं?
उत्तर- श्वासरोग‬ कष्टसाध्य होता है। परन्तु उचित आहार-विहार एवं औषधि सेवन से इसे नियंत्रित रखा जा सकता है। आपकी माताजी ने जनवरी माह से "बेटनीसोल' नामक औषधि प्रारम्भ की है, परन्तु किसी भी तरह से यह औषधि छोड़नी होगी, क्योंकि भविष्य में इस औषधि से अधिक हानि होगी। अभी किसी योग्य चिकित्सक से सलाह लेकर बेटनीसोल गोली छोड़ने का मार्ग समझ लीजिए, क्योंकि एकाएक इसको छोड़ना भी कठिन होता है। आजकल कई प्रकार की नाक से ली जाने वाली औषधि (इनहेलर) हैं, उनसे लाभ होता है। एक अन्य उपकरण न्यूबुलाइजर आता है, उसका प्रयोग भी अधिक श्वास के दौरे के समय करते हैं।
जब श्वास रोग की स्थिति कुछ नियंत्रण में आ जाए तो फिर श्वास कुठार रस की एक-एक गोली दिन में तीन बार सेवन करें। श्वास चिन्तामणि रस की एक-एक गोली दिन में दो बार सेवन करें। सदैव गर्म पानी का सेवन करें। ठंडी चीजों का सेवन न करें। दही, चावल तली हुई चीजें भी बन्द कर दें। संभव हो तो नित्य वाष्प लें।


प्रश्न- "स्नोफीलिया‬' नामक बीमारी है। मौसम बदलने से अधिक कष्ट होता है। कफ भी अधिक बनता है। कृपया निदान बताएं?
उत्तर- मौसम बदलने से आपको कफ एवं खांसी अधिक होती है। हरिद्रा खण्ड लेने से आपको लाभ हुआ है। आप हरिद्रा खण्ड लेते हैं इससे कोई हानि नहीं है। साथ में आम वासावलेह का एक-एक चम्मच तीन बार ठण्डा जल से सेवन करें। साथ में श्रृंगाराभ रस की एक-एक गोली का दिन में तीन बार सेवन करें। इससे कफ बनना बन्द हो जाएगा।

प्रश्न- गत आठ वर्षों से "अल्सरेटिव कोलाइटिस' से पीड़ित हूं। दिन में पांच-छह बार दस्त होते हैं। मल के साथ खून आता है। मुझे एस्टेरोयड दी जाती है, तब खून बन्द होता है। औषधि बन्द करने पर पुन: खून आने लगता है। कृपया आयुर्वेदिक निदान बताइए?
उत्तर- आप कुटजारिट‬ का चार-चार चम्मच भोजन के बाद दोनों समय प्रयोग करें। साथ में कुटजावलेह का एक-एक चम्मच, उसमें एक-एक रत्ती अभ्रक भस्म मिलाकर दिन में तीन बार सेवन करें, आपको लाभ होगा।

प्रश्न- मेरी आयु 25 वर्ष है। लगभग दो वर्ष से अल्सर की शिकायत है। सीने में जलन भी रहती है। खाना खाने के बाद पेट में दर्द होता है। कृपया निदान बताएं।
उत्तर- आप अम्लपित्त के रोगी हैं। सर्वप्रथम तो आप मिर्च, खटाई, अचार, चाय, काफी बंद कर दीजिए। भोजन के बाद आप अम्लपितान्तक लौह की एक गोली, सूतशेखर रस की एक गोली एवं शूलवज्रणी वटी की एक-एक गोली दिन में तीन बार लें। साथ में अविपत्तिकर चूर्ण का एक-एक चम्मच भोजन से पूर्व लें तो आपका रोग ठीक होगा। इस औषधि का आप तीन मास तक लगातार सेवन करते रहिए।

Friday, 7 August 2015

चिरयता हैं गुणकारी - करे नित्य प्रयोग



आयुर्वेद के अनुसार : आयुर्वेद के मतानुसार चिरायता का रस तीखा, गुण में लघु, प्रकृति में गर्म तथा कड़ुवा होता है। यह बुखार, जलन और कृमिनाशक होता है। चिरायता त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) को नष्ट करने वाला, प्लीहा यकृत वृद्धि (तिल्ली और जिगर की वृद्धि) को रोकने वाला, आमपाचक, उत्तेजक, अजीर्ण, अम्लपित्त, कब्ज, अतिसार, प्यास, पीलिया, अग्निमान्द्य, संग्रहणी, दिल की कमजोरी, रक्तपित्त, रक्तविकार, त्वचा के रोग, मधुमेह, गठिया, जीवनीशक्तिवर्द्धक, जीवाणुनाशक गुणों से युक्त होने के कारण इन बीमारियों में सफलतापूर्वक उपयोग किया जाता है

100 ग्राम सूखी तुलसी के पत्ते का चूर्ण, 100 ग्राम नीम की सूखी पत्तियों का चूर्ण, 100 ग्राम सूखे चिरायते का चूर्ण लीजिए। इन तीनों को समान मात्रा में मिलाकर एक बड़े डिब्बे में भर कर रख लीजिए। यह तैयार चूर्ण मलेरिया या अन्य बुखार होने की स्थिति में दिन में तीन बार दूध से सेवन करें। मात्र दो दिन में आश्चर्यजनक लाभ होगा। बुखार ना होने की स्थिति में इसका एक चम्मच सेवन प्रतिदिन करें।

बाजार से आप थोडा-सा चिरायता ले आइये और उसे आवश्यकतानुसार एक गिलास पानी में मिला लीजिए व उबलने रख दीजिए। उसे तब तक उबालें जब तक कि पानी का कलर चाय की तरह भूरा ना हो जाए। अब उस साफ शीशी में भरकर रख लीजिए व कुछ दिन सुबह खाली पेट एक-एक चम्मच इस्तेमाल कीजिए। कुछ ही दिन में आपके मंहुसे निकालने बंद हो जायेंगे और कई छोटे-मोटे बीमारियां चिरायता लेने के कारण दूर हो जाएंगे। क्योंकि चिरायता रक्त साफ करता है और शुद्ध रक्त स्वास्थ्य की पहली जरूरत है।

चिरायते का काढ़ा एक सेर औंस की मात्रा में मलेरिया ज्वर में तुरंत लाभ पहुँचाता है । लीवर प्लीहा पर इसका प्रभाव सीधा पड़ता है व ज्वर मिटाकर यह दौर्बल्य को भी दूर करता है । कृमि रोग कुष्ठ, वैसीलिमिया, वायरीमिया सभी में इसकी क्रिया तुरंत होती है । यह त्रिदोष निवारक है अतः बिना किसी न नुनच के प्रयुक्त हो सकता है ।

अन्य उपयोग-संस्थानिक बाह्य उपयोग के रूप में यह व्रणों को धोने, अग्निमंदता, अजीर्ण, यकृत विकारों में आंतरिक प्रयोगों के रूप में, रक्त विकार उदर तथा रक्त कृमियों के निवारणार्थ, शोथ एवं ज्वर के बाद की दुर्बलता हेतु भी प्रयुक्त होता है । इसे एक उत्तम सात्मीकरण स्थापित करने वाला टॉनिक भी माना गया है ।

Thursday, 6 August 2015

वात‬ रोग का उपचार

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वात, पित्त और कफ तीनों में से वात सबसे प्रमुख होता है क्योंकि पित्त और कफ भी वात के साथ सक्रिय होते हैं। शरीर में वायु का प्रमुख स्थान पक्वाशय में होता है और वायु का शरीर में फैल जाना ही वात रोग कहलाता है। हमारे शरीर में वात रोग 5 भागों में हो सकता है जो 5 नामों से जाना जाता है।
वात के पांच भाग निम्नलिखित हैं-
• उदान वायु - यह कण्ठ में होती है।
• अपान वायु - यह बड़ी आंत से मलाशय तक होती है।
• प्राण वायु - यह हृदय या इससे ऊपरी भाग में होती है।
• व्यान वायु - यह पूरे शरीर में होती है।
• समान वायु - यह आमाशय और बड़ी आंत में होती है।


वात रोग के प्रकार :-
आमवात के रोग में रोगी को बुखार होना शुरू हो जाता है तथा इसके साथ-साथ उसके जोड़ों में दर्द तथा सूजन भी हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगियों की हडि्डयों के जोड़ों में पानी भर जाता है। जब रोगी व्यक्ति सुबह के समय में उठता है तो उसके हाथ-पैरों में अकड़न महसूस होती है और जोड़ों में तेज दर्द होने लगता है। जोड़ों के टेढ़े-मेढ़े होने से रोगी के शरीर के अंगों की आकृति बिगड़ जाती है।

सन्धिवात :-
जब आंतों में दूषित द्रव्य जमा हो जाता है तो शरीर की हडि्डयों के जोड़ों में दर्द तथा अकड़न होने लगती है।

गाउट :-
गाउट रोग बहुत अधिक कष्टदायक होता है। यह रोग रक्त के यूरिक एसिड में वृद्धि होकर जोड़ों में जमा होने के कारण होता है। शरीर में यूरिया प्रोटीन से उत्पन्न होता है, लेकिन किसी कारण से जब यूरिया शरीर के अंदर जल नहीं पाता है तो वह जोड़ों में जमा होने लगता है और बाद में यह पथरी रोग का कारण बन जाता है।

मांसपेशियों में दर्द:-
मांस रोग के कारण रोगी की गर्दन, कमर, आंख के पास की मांस-पेशियां, हृदय, बगल तथा शरीर के अन्य भागों की मांसपेशियां प्रभावित होती हैं जिसके कारण रोगी के शरीर के इन भागों में दर्द होने लगता है। जब इन भागों को दबाया जाता है तो इन भागों में तेज दर्द होने लगता है।

गठिया :-
इस रोग के कारण हडि्डयों को जोड़ने वाली तथा जोड़ों को ढकने वाली लचीली हडि्डयां घिस जाती हैं तथा हडि्डयों के पास से ही एक नई हड्डी निकलनी शुरू हो जाती है। जांघों और घुटनों के जोड़ों पर इस रोग का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है और जिसके कारण इन भागों में बहुत तेज दर्द होता है।

वात रोग के लक्षण :-
• वात रोग से पीड़ित रोगी के शरीर में खुश्की तथा रूखापन होने लगता है।
• वात रोग से पीड़ित रोगी के शरीर की त्वचा का रंग मैला सा होने लगता है।
• रोगी व्यक्ति को अपने शरीर में जकड़न तथा दर्द महसूस होता है।
• वात रोग से पीड़ित रोगी के सिर में भारीपन होने लगता है तथा उसके सिर में दर्द होने लगता है।
• रोगी व्यक्ति का पेट फूलने लगता है तथा उसका पेट भारी-भारी सा लगने लगता है।
• रोगी व्यक्ति के शरीर में दर्द रहता है।
• वात रोग से पीड़ित रोगी के जोड़ों में दर्द होने लगता है।
• रोगी व्यक्ति का मुंह सूखने लगता है।
• वात रोग से पीड़ित रोगी को डकारें या हिचकी आने लगती है।

वात रोग होने का कारण :-
• वात रोग होने का सबसे प्रमुख कारण पक्वाशय, आमाशय तथा मलाशय में वायु का भर जाना है।
• भोजन करने के बाद भोजन के ठीक तरह से न पचने के कारण भी वात रोग हो सकता है।
• जब अपच के कारण अजीर्ण रोग हो जाता है और अजीर्ण के कारण कब्ज होता है तथा इन सबके कारण गैस बनती है तो वात रोग पैदा हो जाता है।
• पेट में गैस बनना वात रोग होने का कारण होता है।
• जिन व्यक्तियों को अधिक कब्ज की शिकायत होती है उन व्यक्तियों को वात रोग अधिक होता है।
• जिन व्यक्तियों के खान-पान का तरीका गलत तथा सही समय पर नहीं होता है उन व्यक्तियों को वात रोग हो जाता है।
• ठीक समय पर शौच तथा मूत्र त्याग न करने के कारण भी वात रोग हो सकता है।

वात रोग होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार :-
• वात रोग का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को अपने हडि्डयों के जोड़ में रक्त के संचालन को बढ़ाना चाहिए। इसके लिए रोगी व्यक्ति को एक टब में गरम पानी लेकर उसमें आधा चम्मच नमक डाल लेना चाहिए। इसके बाद जब टब का पानी गुनगुना हो जाए तब रोगी को टब के पास एक कुर्सी लगाकर बैठ जाना चाहिए। इसके बाद रोगी व्यक्ति को अपने पैरों को गरम पानी के टब में डालना चाहिए और सिर पर एक तौलिये को पानी में गीला करके रखना चाहिए। रोगी व्यक्ति को अपनी गर्दन के चारों ओर कंबल लपेटना चाहिए। इस प्रकार से इलाज करते समय रोगी व्यक्ति को बीच-बीच में पानी पीना चाहिए तथा सिर पर ठंडा पानी डालना चाहिए। इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से रोगी को कम से कम 20 मिनट में ही शरीर से पसीना निकलने लगता है जिसके फलस्वरूप दूषित द्रव्य शरीर से बाहर निकल जाते हैं और वात रोग ठीक होने लगता है।
• वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए 2 बर्तन लें। एक बर्तन में ठंडा पानी लें तथा दूसरे में गरम पानी लें और दोनों में 1-1 तौलिया डाल दें। 5 मिनट बाद तौलिये को निचोड़कर गर्म सिंकाई करें। इसके बाद ठंडे तौलिये से सिंकाई करें। इस उपचार क्रिया को कम से कम रोजाना 3 बार दोहराने से यह रोग ठीक होने लगता है।
• वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को लगभग 4 दिनों तक फलों का रस (मौसमी, अंगूर, संतरा, नीबू) पीना चाहिए। इसके साथ-साथ रोगी को दिन में कम से कम 4 बार 1 चम्मच शहद चाटना चाहिए। इसके बाद रोगी को कुछ दिनों तक फलों को खाना चाहिए।
• कैल्शियम तथा फास्फोरस की कमी के कारण रोगी की हडि्डयां कमजोर हो जाती हैं इसलिए रोगी को भोजन में पालक, दूध, टमाटर तथा गाजर का अधिक उपयोग करना चाहिए।
• कच्चा लहसुन वात रोग को ठीक करने में रामबाण औषधि का काम करती है इसलिए वात रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन कच्चे लहसुन की 4-5 कलियां खानी चाहिए।
• वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को भोजन में प्रतिदिन चोकर युक्त रोटी, अंकुरित हरे मूंग तथा सलाद का अधिक उपयोग करना चाहिए।
• रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन कम से कम आधा चम्मच मेथीदाना तथा थोड़ी सी अजवायन का सेवन करना चाहिए। इनका सेवन करने से यह रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
• वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए रोगी को प्रतिदिन सुबह तथा शाम के समय में खुली हवा में गहरी सांस लेनी चाहिए। इससे रोगी को अधिक आक्सीजन मिलती है और उसका रोग ठीक होने लगता है।
• शरीर पर प्रतिदिन तिल के तेलों से मालिश करने से वात रोग ठीक होने लगता है।
• रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन सुबह के समय में धूप में बैठकर शरीर की मालिश करनी चाहिए। धूप वात रोग से पीड़ित रोगियों के लिए बहुत ही लाभदायक होती है।
• वात रोग से पीड़ित रोगी का उपचार करने के लिए तिल के तेल में कम से कम 4-5 लहसुन तथा थोड़ी सी अजवाइन डालकर गर्म करना चाहिए तथा इसके बाद इसे ठंडा करके छान लेना चाहिए। फिर इसके बाद इस तेल से प्रतिदिन हडि्डयों के जोड़ पर मालिश करें। इससे वात रोग जल्दी ही ठीक हो जायेगा।





Wednesday, 5 August 2015

साइनस की परेशानी से पाये छुटकारा


लगातार खांसी और छींक आना आदमी को चिडचिडा बना देता हैं | सामान्यत: खांसी जुकाम की दवा अगर काम नहीं कर रही और बदन दर्द, एलर्जी बरकरार हैं तो समझिये आप साइनस की परेशानी से जूझ रहे हैं | अगर आप सायनस को लेकर असमंजस में हैं कि मैं एलोपैथ, होमियोपैथ या आयुर्वेद किस तरफ जाऊ तो बेफिक्र होकर आयुर्वेदिक् उपचार अपनाए | जैसे कि आप सभी इस बात से भली भांति परिचित हैं| कि आयुर्वेद का न तो कोई साइड इफ़ेक्ट हैं और न ही इसका कोई नुकसांन | बल्कि रोगों का सम्पूर्ण और कारगर इलाज संभव हैं, तो सिर्फ आयुर्वेद में ही संभव हैं |
आज हम यहां आपको साइनसाइटिस के कुछ आयुर्वेदिक उपचार के बारे में बताने जा रहे हैं |

1. अणु तेल- अणु तेल साइनसाइटिस के उपचार के लिए आयुर्वेद की एक औषधी है। जब आप किसी डाक्टर के पास साइनसाइटिस की समस्या लेकर जाएंगे तो निश्चित तौर पर आपको अणु तेल के इस्तेमाल की सलाह देगा। यह तेल संकुलन को कम करने के लिए जाना जाता है। नाक बंद हो जाने पर यह तेल काफी असरदार होता है। हालांकि शुरू में कुछ समय आप लगातार छींकेंगे और नाक भी बहेगी, पर कुछ दिन बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा।

2. खदीरादी वटी- साइनस इंफैक्शन के उपचार के लिए जाने पर डाक्टर आपको खदीरादी वटी के प्रयोग की सलाह भी दे सकते हैं। मुख्य रूप से डाक्टर जलन को कम करने के लिए इस दवा के सेवन की सलाह देते हैं। इसके अलावा कांचनार गुग्गुल और व्योषादि वटी का इस्तेमाल भी इसी उद्देश्य के लिए किया जाता है।

3. च्यवनप्राश- आयुर्वेद के उपचार में यह एक सामान्य औषधी है। साइनसाइटिस के आयुर्वेदिक उपचार में भी चवनपराश का इस्तेमाल किया जाता है। इसके जरिए नाक की एलर्जी, शरीर दर्द आदि भी दूर होता है। इसके अलावा शरीर के दर्द के उपचार में अभ्रक भस्म और लक्ष्मी विलास रास का इस्तेमाल भी किया जाता है।

4. चित्रक हरीतकी- यह दवाई लेहया के रूप में उपलब्ध रहती है। यह भी साइनस इंफैक्शन का आयुर्वेदिक उपचार है और डाक्टर के बताए गए निर्देशों के अनुसार इस दवाई का लगातार सेवन करना चाहिए। आमतौर पर दो चम्मच चित्रक हरीतकी को दूध के साथ लिया जाता है।

5. जीवनधारा- यह कपूर और मेंथॉल का मिश्रण है और इसका इस्तेमाल साइनस इंफैक्शन के आयुर्वेदिक उपचार में किया जाता है। भांप को सूंघते समय इस दवाई को मिलाया जाता है। अगर एक हफ्ते तक दिन में दो बार इसकी सांस लेंगे तो काफी फायदा पहुंचेगा। इससे निश्चित रूप से आपको काफी आराम पहुंचेगा।

6. मिश्रण- हो सकता है आपका इम्युनिटी सिस्टम उतना मजबूत न हो। तो आपके इम्यूनिटी को बनाने की जरूरत है और ऐसा करने के लिए शरीर से टॉक्सिन को बाहर निकालना पड़ेगा। आप पूरे दिन पानी पी कर ऐसा आसानी से कर सकते हैं। साथ ही आप चाय में पुदीना, लौंग और अदरक मिलाकर अतिरिक्त आराम पा सकते हैं। साथ ही भोजन बनाने के दौरान खाने में हल्दी, काली मिर्च, सौंफ, जीरा, धनिया, अदरक और लहसुन भी मिलाएं। साइनसाइटिस को एक अनुशासित और अच्छे आहार के जरिए दूर किया जा सकता है।
आयुर्वेद अपनाए रोग मुक्त रहे |

Tuesday, 4 August 2015

पायरिया का आयुर्वेदिक उपचार - मुह की दुर्गन्ध से मुक्ति

मुंह की दुर्गन्ध, मसुडो में सुजन, दातो से खून आना ये पायरिया‬ (Pyaria‬) के आम लक्षण हैं | यह रोग दातों को गंदा रखने, अधिक मीठा खाना, विटामिन सी की कमी, और पेट संबंधी रोगों की वज़ह से भी होती है | यह एक ऐसा बीमारी हैं जिससे आप लोगो के बीच में बैठने से कतराते हैं | पर आयुर्वेद के सफल पद्धति ने इस रोग से बचने का सफल इलाज ढूढ़ निकाला हैं | आयुर्वेद अपना के आप अपने दातो को स्वस्थ और सुरक्षित रख सकते हैं |

आईये जाने क्या हैं ये इलाज –

1- थोड़ा सा कपूर का टुकडा पान में डालकर उसे चबा कर थूक दें एैसा करने से पायरिया रोग में लाभ मिलता है लेकिन इस बात का ध्यान रखें की पान पेट में न जाए।
2- नींबू के रस को शहद में मिलाकर मसूड़ो पर मलने से पायरिया में लाभ मिलता है।
3- पानी में नींबू का रस निचोड़कर उससे कुल्ला करने से भी पायरिया से छुटकारा मिलता है।
4- थोड़े से नमक में काली मिर्च के चूर्ण को मिलाकर दातों पर मलने से भी पायरिया ठीख होता है।
5- कपूर को देसी घी में अच्छी तरह से मिला लीजिये और इस पेस्ट से दातों पर अच्छी तरह से मलने से पायरिया से राहत मिलती है ।
6- लहसुन की 15 बूंदें 1 चम्मच शहद में मिलाकर चाटते रहने से भी पायरिया का रोग ठीक होता है।
7- कच्चा पालक चबाकर खाने से भी पायरिया रोग में राहत मिलती है।
8- खाली पेट सवेरे-सवेरे पालक का रस पीने से पायरिया का रोग ठीक होता है।
9- पानी में टमाटर के रस को घोलकर गरारे और कुल्ला करते रहने से पायरिया की बीमारी से राहत मिलती है।
10- नारंगी के छिलकों को छाया में सूखा लीजिये और उसे पीसकर उस पाउडर से दातों का मंजन करें आपको फायदा होगा।
11- पालक के रस में गाजर का रस को मिलाकर पीने से भी पायरिया कुछ दिनों में ठीक हो जाता है।
12- सेंधा नमक को सरसों के तेल में डालकर मंजन करने से पायरिया ठीक होता है।
13- नीम के पत्तो को अच्छी तरह धूप में सूखा ले फिर उसमे सेंधा नमक डाल के उसका महीन चूर्ण बना ले | और हलके से ऊँगलीओ से ब्रश के पश्चात दातो और मसुडो पे घिसे उसके बाद कुल्ल्ला करे यह उपचार पायरिया रोग से बचाने में सहायक होगा

मयूर चन्द्रिका भस्म – अब हिचकी से क्यों? घबराना

क्या आप हिचकी की समस्या से परेसान हैं | आये देखे हिचकी आपको परेसान करती हैं और ये रुकने का नाम नहीं लेती हैं तो आज हम आपको एक घरेलु उपचार बताने जा रहे हैं जो इस समस्या से निजात दिलाती हैं |
भस्म विधि- मयूर (मोर) के पंख को दियासलाई या घी की बत्ती से जलाकर भष्म कर ले पीछे पीस-छान कर रख ले ध्यान रहे पंख का पिछला चन्द्रिका वाला भाग ही विशेष गुणयुक्त होता है अतः उतने ही अंश को भष्म करे मयूर पंख राजस्थान तथा ब्रज में मिलते है अधिक मात्रा में भष्म बनानी हो तो इंडिया में भरकर पुट दे

२ रत्ती शहद से दे
मात्रा और अनुपात -

गुण और उपयोग – हिचकी और वमन में लाभदायक है | इसकी भस्म का सेवन करने से हिचकी, वमन, स्वास और कास रोग नष्ट होते हैं | इस भस्म को पिपली के चूर्ण के साथ मधु मिलाकर चाटने से प्रबल हिचकी श्वास और घोर वमन तथा उपद्र्व युक्त वमन शीघ्र नष्ट होते हैं | मयूर चन्द्रिका में जो सुंनहरा रंग दिखाई पड़ता हैं उसमे अति न्यून अंश में स्वर्ण का भाग रहता हैं | तथा मयूर चन्द्रिका में ताम्र का भाग विशेष होता हैं | इसी कारण इसका चमत्कारिक प्रभाव होता हैं | हिचकी में इसके साथ जहर मोहरा खटाई पिष्टी या भष्म १-२ रत्ती तथा रसादि रस १ गोली मिलाकर देने से अच्छा और शीघ्र लाभ होता हैं | तीव्र हिचकी था हिक्का अत्यंत तृषा के कारण रोगी बेचैन हो तो पिपली के छाल के साथ मयूर चन्द्रिका भस्म को सेवन करना अच्छा रहता हैं |

आभा गुग्गुल – जोड़ो का दर्द, और ‪बातरोग‬ में लाभ दायक

आयुर्वेद में गुग्गुल का बहुत बड़ा महत्व हैं | समस्त वायुरोगों में इसका प्रयोग किया जाता हैं लकिन इसका पूर्ण लाभ तभी होता हैं जब ये सस्त्रोक्त विधि से शोधन कर खूब कुटाई के बाद तैयार किया गया हो |
बबूल की छाल, सोंठ, पीपल, मिर्च, आवला, हर्रे, बहेड़ा सब सामान भाग ले और शुद्ध गुग्गुल सबके सामान भाग लेकर पहले कष्ठोधियो को कूटकर कपडे से छान चूर्ण बना, गुग्गुल के साथ मिला, घी के सहारे एकत्र कूटकर, ३-३ रत्ती को गोलिया बना, छाया में सूखा के सुरक्षित रख ले |

मात्रा और अनुपान- २-४ गोली दिन भर में २-३ बार गर्म जल या दूध से दे |

गुण और उपयोग- कही फिसल कर गिर पड़ने, किसी पेंड आदि से गिर पड़ने अथवा डंडा आदि से चोट लग जाने से ‪‎हड्डिया‬ टूट गयी हो, और जुड़ने के बाद भी ‪‎दर्द‬ बना रहता हैं तो इसके दर्द से निजात पाने में आभा गुग्गुल बहुत उपयोगी हैं | यह भस्म सन्धानकारक एवं पिडानाशक हैं

अश्वगन्धादि चूर्ण – मस्तिष्क विकार और विर्य संबधी समस्या से निजात दिलाने में सहायक

मस्तिष्क‬ मानव शरीर का सबसे अहम् हिस्सा हैं | यह सभी तन्त्रिकाओ और उनके बीच होने वाली सारी क्रियाओ पे नियत्रण रखता हैं| यह मानव शरीर का एक आवश्यक अंग होने के साथ-साथ प्रकृति की एक उत्कृष्ट रचना भी है। देखने में यह एक जैविक रचना से अधिक मात्र नहीं प्रतीत होता। परन्तु यह हमारी इच्छाओं, संवेगों, मन, ‪‎बुद्धि‬, चित्त, अहंकार, चेतना, ज्ञान, अनुभव, व्यक्तित्व इत्यादि का केन्द्र भी होता है। इसके दुर्वल होने पे मनुष्य अतिक्षीण महसूस करता हैं जिसके फलस्वरूप अनेक बिमारिया उत्पन्न हो सकते हैं | आयुर्वेद की सहज उपचार से हम इस प्रकार की असहज विमारियो से निजात पा सकते हैं | ‪‎अश्वगन्धादि‬ चूर्ण हमें इन विकारों से मुक्त कराने में सहायक हैं | आइये जाने इसे कैसे करे उपयोग |

अश्वगन्धा ४० तोला विराधा ४० तोला इन दोनों को लेकर इन दोनों को कूटकर सूक्ष्म चूर्ण करके रख ले |

मात्रा और अनुपान – ३-६ माशे तक सुबह-शाम दूध या जल के साथ ले |

गुण और उपयोग- इस चूर्ण के सेवन से वीर्यविकार, शुक्रक्षय, ‪‎विर्य‬ का पतलापन, शिथिलता, शीघ्रपतन‬, प्रमेह आदि विकार नष्ट होकर वीर्य गाढ़ा और निर्दोष बनता हैं | इस चूर्ण का सबसे उत्तम प्रभाव विर्यवाहिनी नाड़ीयो, वातवाहिनी नाड़ीयो और मस्तिष्क को परिपुष्ट करता हैं | अनिद्रा‬, ह्रदय की कमजोरी‬ को नष्ट करता हैं | यह चूर्ण उत्तम ‪‎शक्तिवर्धक‬ तथा वाजिकरण हैं | शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाकर शरीर के वजन को बढाता एवम उत्तम वय:स्थापक हैं |

महाभृंगराज तैल- बनाये घने मुलायम काले बाल



खूबसूरत बाल पर्सनैलिटी में निखार लाने के साथ-साथ हमारी सेहत का भी आईना होते हैं। बालों का बेवक्त पकना या झड़ना किसी की भी नींद उड़ा सकता है। हालांकि कई फैक्टर मिलकर बालों की सेहत तय करते हैं। फिर भी हम थोड़ी देखभाल से अच्छे ‪‎बाल‬ पा सकते हैं।

तिल तेल (मुर्छित)१२८ तोला, भृंगराज का स्वरस या क्वाथ ५१२ तोला ले | पश्चात मंजीठ, पदाम्काष्ठ, लोध, चन्दन लाल, गैरिक, खरेंटी का पंचांग, हल्दी, दारु-हल्दी, नागकेशर, प्रियंगु,प्रपोंड्रिक (कमल का फूल), अनंतमूल- प्रतेक ४-४ तोला लेकर कूटकर दुग्ध से पीसकर कलक बनाये | फिर एक कढाई में तिलतेल भृंगराज स्वरस तथा कल्क को डालकर तैल‬ पाक बिधि से पकावे | तैल सिद्ध हो जाने पर छानकर पात्र में रख ले | 

बय्क्तब्य-
द्रब्य पदार्थो को द्रब्यद्वगुण परिभाषा अनुसार दोगुण लिया गया हैं| फिर भी इस तेल में कल्क का परिमाण अधिक हैं अत: तेल से चुर्थांस कल्क को कल्क के रूप में मिलावे था शेष को अष्ठगुण जल में पकाकर, चार भाग रहने पर छानकर, इस क्वाथ को तेल में डालकर इससे भी पाक कर ले | ऐसा करने से बनाने में सुविधा रहती हैं | और उत्तम गुणवतता भी बनी रहती हैं |

गुण और उपयोग – इस तेल को सिर में लगाने से बालो का असमय से झड़ना (hair loss‬) और सफ़ेद होना ये दोनों बिकार नष्ट होती हैं | इसके अतिरिक्त शिरो रोग, मन्यास्तम्भ, गल-ग्रह, कान तथा आख के रोगों में नस्य लेने तथा मालिश कने से उत्तम लाभ करता हैं | यह बालो को काले, घुघराले और चिकने बनता तथा बालो को खूब उगाता एवं बढाता हैं | बालो का गिरना या न उगना – इन दोनों रोगों को भी यह नष्ट करता हैं |

दशनसंस्कार चूर्ण (‪मंजन‬) अपनाइए स्वस्थ्य साफ़ एवं ‪स्वछ‬ दांत पाइए


दांतों‬ का नाता सिर्फ खूबसूरती से नहीं होता , बल्कि इनके बिना जिंदगी बेहद मुश्किल हो जाती है। दिक्कत यह है कि हममें से ज्यादातर लोग दांतों की देखभाल को लेकर गंभीर नहीं होते। अगर शुरू से ध्यान दिया जाए तो दांतों की बहुत सारी समस्याओं से बचा जा सकता है। आज हम आप लोगो को प्राकृतिक दन्त मंजन के बारे में बताने जा रहे हैं जिसके उपयोग से आपके दात स्वछ्या और मजबूत बनेगे |

सोठ, हर्रे, कत्त्था, कपूर, सुपारी की राख, कालीमिर्च, लौंग, और दालचीनी, सब चीजें समान भाग में लेकर कूट कर कपडे से छान कर महीन चूर्ण बना ले | इस चूर्ण के समान भाग खड़िया मिट्टी का चूर्ण मिला शीशी में भर कर रख ले | 

नोट- कपूर सबसे पीछे मिलावे तथा खड़िया मिट्टी का पृथक चूर्ण कर मिलावे |

गुण और उपयोग- इस चूर्ण के मंजन से दांतों के समस्त बिकार नष्ट हो जाते तथा दांत (teeth‬) साफ़-स्वछ और मजबूत बने रहते हैं |

पुराना घृत – गाय (‪गौ‬) का घी कफ(‪cough‬) और न्यूमोनिया से बचाने में सर्वोत्तम


आयुर्वेद‬ में गाय के घी को अमृत समान बताया गया है। कई घरों में बहुत से लोग इससे परहेज़ करते हैं और घी को हाथ तक नहीं लगाते। पर अगर गाय के घी को नियमित रूप से सेवन किया जाए तो कई रोगों से मुक्त रह सकते हैं |

अच्छे उत्तम गो-घृत को लेकर किसी चीनी मिटटी के पात्र या कांच के अमृतवान में भरकर ढक्कन बंद करके ५ बर्ष पर्यंत रखे | तत्पश्चात उपयोग में ले |

गुण और उपयोग-
यह पुराना घी अनेको बिकारो में ताज़े घी की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ, लाभप्रद और उत्कृष्ट मेधावर्धक हैं | इसकी मालिश करने से छाती में जमा हुआ कफ ढीला होकर सरलता से निकल जाता हैं | विशेषतया पार्श्वशूल और न्यूमोनिया (pneumonia‬) में उत्कृष्ट लाभ होता हैं | उन्माद, अपस्मार और अनिद्रा को भी नष्ट करने में विशेष उपयोगी हैं |

बालार्क रस (साधारण)- आपके बच्चे को स्वस्थ रखे


छोटे बच्चों को बड़ी जल्दी बीमारियां घेरने लगती है। कई बार बच्चे के रोगों का पता भी नहीं चल पाता है कि वह किस समस्या से परेशान है। सामान्य परेशानियां जैसे प्रायः पेट फूलना, चुनचुने लगना, जुकाम, पेट में एठन होना मुख्य समस्याएं हैं जिनके बारे में बच्चे की मां को पता होना चाहिए। इन लक्षणों (symptoms of children's diseases‬) के आधार पर पर नवजात बच्चों की बीमारी का पता लगाया जा सकता है। आयुर्वेद के अथक प्रयास से आज हम आपलोगों को ऐसे ही औषधि के बारे में बताने जा रहे हैं जो आपके बालक को स्वस्थ्य रखने में सहायक होगा |

खर्पर भस्म (अभाव में यशद भस्म), प्रबाल भस्म, श्रृंग भस्म, शुद्ध हिंगुल, कचूर का चूर्ण, - प्रत्येक १-१ भाग लेकर सबको ब्राम्ही –स्वरस की भावना देकर अच्छी तरह मर्दन करे | गोली बनाने योग्य होने पर १-१ रति की गोलिया बना के छाया में सुखाके सुरक्षित रख ले |

मात्रा और अनुपान- १-१ गोली दिन में २-३ बार माँ के दूध से या जल अथवा शहद के साथ दे |
गुण और उपयोग – इस रस का सेवन करने से बच्चो के समस्त प्रकार के रोग यथा – ज्वर, अतिसार, हरे-पीले और फटे से, सफेद तथा झागदार दस्त होना, अस्थिमार्दव, बालशोध, डब्बा रोग, उदरकृमि, आदि विकारों को नष्ट कर बच्चो को हृस्ट- पुष्ट और निरोग बनाता हैं| यह मोतिझरा रोग में भी लाभ करता हैं |

बहुमूत्रांक रस – प्रमेह (सुगर) की बीमारी में बहुत उपयोगी

प्रमेह (diabetes) को कई नामो से जाना जाता हैं जैसे- सुगर, डायबिटीज |  एक समय ऐसा थाजब प्रमेह के बारे में कोई भी नहीं जानता था, लेकिन आजकल के लाइफस्‍टाइल में ये बीमारी बहुत आम हो गई है। हर तीसरा व्‍यक्ति इसकी चपेट में आता जा रहा है। शरीर में बेकार प्रतिरोधक क्षमता के कारण ऐसा बहुत अधिक होता है। आज हम इस बीमारी की औषधी आप लोगों को बताने जा रहे हैं, जिसके सेवन से आप शत प्रतिसत स्वस्थ महसूस करेंगे |


रससिन्दूर, लौह भस्म, बंग भस्म, शुद्ध अफीम, गूलर-फल के बीज, बेल की जड़ की छाल और तुलसी,समान भाग लेकर, प्रथम रससिन्दूर को खरल में घोंटकर लौह और बंगभस्म, शुद्ध अफीम मिला कष्ठोधियो को कूटकर कपडे से छानकर महीन चूर्ण बना मिलाकर गूलर के फलो के रस में सबको घोटकर २-२ रती की गोलियां बना, छाया में सुखाकर रख ले |

मात्रा और अनुपान- बहुमूत्र, मधुमेह (पेशाब में चीनी आने) में जामुन की गुठली और गुडमार का चूर्ण १-१ माशा, गूलर का रस और शहद के साथ १-१ गोली शुबह –शाम दे | प्रमेह में गुर्च के रस और मधु से दे | नपुंसकता-नामर्दी और शीघ्रपतन दोष दूर करने के लिए मिश्री मिला, खूब खौला कर ठन्डा किये हुए दूध के साथ ले |

नोट- यदि इसके सेवन से प्यास अधिक लगे तो सारिवा, मुलेठी, मुनक्का, दाभ (कुश), चीड का बुरादा,लालचंदन, हर्रे का बक्कल, महुआ के फूल,- सब समान भाग लेकर, काढ़ा बना, ठंडा करके पिलाना चाहिए | अथवा इन चीजो को रात में पानी में भिगो दे और प्रात: काल छानकर पिलावे |
गुण और उपयोग – यह रसायन मधुमेह (sugar) और बहुमूत्र तथा सोम रोगों के लिए बहुत उपयोगी हैं | प्रमेह और शीघ्रपतन, वीर्य की कमी आदि में भी इसका प्रयोग किया जाता हैं | 

फिटकरी है उपयोगी - सर्प एवं बिच्छू दंश के प्रभाव से बचाये



फिटकरी एक प्रकार की खनिज मिटटी से, जिसको देशी भाषा में रोल और अंग्रेजी में “एलम शोल “ कहते हैं, से तैयार होने वाली बस्तु हैं | यह लाल और सफ़ेद दो प्रकार की होती हैं | भारत बर्ष में फिटकरी बनाने वाले कई कारखाने हैं | सबसे बड़ा कारखाना सिन्धु नदी के किनारे ‘काला बाग़ ‘ नामक स्थान पर हैं | यहाँ आज भी बहुत बड़े पैमाने पर फिटकरी तैयार की जाती हैं | फिटकरी का सत्व पातन करने से एल्युमीनियम धातु प्राप्त होती हैं | 


भस्म- बिधि – फिटकरी के टुकड़े को साफ़ करके छोटे-२ टुकडे बना मिट्टी की हांडी (जिसका पेट बड़ा हो ) में रख कर ऊपर से किसी ढक्कन से ढक दे | फिर इसे गजपुट में फूंक दे | स्वांग-शीतल होने पर भस्म निकाल ले | यह भस्म स्वच्छ, मुलायम और श्वेत वर्ण की होती हैं| बहुत से वैद्य इसे तवा पर रखकर फुला कर इसकी खील बना महीन पीस करकर भी काम में लाते हैं | 

लाल फिटकरीभस्म – लाल फिटकरी ५ तोला लेकर घृतकुमारी के रस में खरल करे | जब रस सुख जाये तो फिर इसे एक दिन भागरे के रस में खरल करके इसकी टिकिया बना, धूप में सुखा, सरब सम्पुट में बंद कर ५ सेर कन्डो की आंच में फूक दे | स्वांग शीतल होने पर भस्म को निकाल ले |
मात्रा और अनुपान – २ से ४ रत्ती, मधु घी शरबत बंनप्सा या रोगानुसार अनुपान से दे | 


गुण और उपयोग – इसको भस्म सूजाक, रक्तप्रदर, खांसी, पार्श्वशूल, पुरानी खांसी, राजयक्ष्मा, निमोनिया रक्त्बमन, विषविकार, मूत्रकृचछ, त्रिदोष, प्रमेह, कोढ़, ब्रण्, आदि को दूर करती हैं |
इसकी भस्म रक्त शोधक हैं | इसके सेवन से रक्तबहिनी संकुचित हो जाती हैं अत: यह बहते रक्त को रोकती हैं | इसके सेवन से  बढे हुए श्वास-कास के वेग भी कम हो जाते हैं | छाती में कफ जम के बैठ जाने से  खांसी होने पर छाती में दर्द होने लगता हैं | इस खांसी के अघात से ह्रदय वाल्व खराब हो जाते हैं | तथा इसमें दर्द होने लगता हैं , इस कफ को निकालने के लिए फिटकरी भस्म अमृत के समान हैं | कभी कभी फुस्फुसो में ज्यादे कफ संचय हो जाने पे फुस्फुस कठोर हो जाते हैं तथा अपने कार्य में असमर्थ हो जाते हैं | इसी अवस्था में यह भस्म भुत उपकारी हैं | 

हुपिंग कास (कुकुर खांसी ) – यह बीमारी बच्चो को अधिकार होती हैं | इसमें इतने जोर की खांसी उठती है कि बच्चे को वमन तक हो जाती हैं | ऐसी हालत में फिटकरी भस्म १ रत्ती, प्रवाल पिष्टी आधी रत्ती, ककड़ीसिंगी चूर्ण २ रत्ती में मिला शहद के साथ देने से फायदा भुत होती हैं | यह भस्म विष नासक हैं | अत: सभी प्रकार के विषों पर इसका प्रभाव होता हैं | 

तत्काल काटे हुए सर्प के रोगी को फिटकरी भस्म १ माशे को ५ तोला घी में मिला कर पिलाने से कुछ देर के लिए बिष का वेग आगे न बढ़कर रुक जाता हैं | 

बिच्छू के बिष में भी १ तोला फिटकरी को ५ तोला गर्म पानी में मिलकर रुई के फाहा से काटे स्थान पर इस पानी को बार बार रकने से बिच्छू का बिष दूर हो जाता हैं |